ये इंतज़ार आखिर कब तक??
ये एक दिन वाली दूरी
कब महीने
और ना जाने कब साल बन गयी..
उम्र पत्तों की तरह टूट-टूटकर
जवानी की ज़मीन को
हर रोज़ ढक रही है...
तुम अक्सर कहती थी ना
देख लेना मोटा चश्मा लग जायेगा
और
बाल उड़ जायेंगे कुछ सालों में..
लेकिन उम्र के चौथे दशक में भी
ना तो अब तक मेरे बाल उड़े
और ना ही मुझे चश्मा लगा,
कंघी है की अब भी बालों में
चलते-चलते शरमाकर रुक जाती है...
हाँ बस चौराहे की दूकान वाला नाई
मुझे आये गए इतना ज़रूर याद दिला देता है कि,
साहब कनपटी के बाल सफ़ेद हो गए हैं,
डाई लगा दूँ क्या???
और मैं हूँ कि हर बार उसे मुस्कुराकर
मना कर देता हूँ,
इस अपेक्षा से की
तुम्हारे लौटने पर
ये सफ़ेद बाल ही
मेरे इंतज़ार की परिधि को बताने में
सहायक होंगे।
पर प्रश्न है कि,
ये इंतज़ार आखिर कब तक??
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